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Guerre
de Troie - Suite de l'Iliade - Pâris |
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Alors
que les Troyens enterraient leurs morts, Polydamas leur dit; "Amis, une
guerre maintenant trop terrible exerce contre nous ses fureurs ; il faut
prendre une résolution qui puisse y mettre fin. Les Danaens nous vainquent et
persistent à nous attaquer. Montons au faîte de nos tours solides, veillons-y
nuit et jour en combattant, jusqu'à ce que les Danaens soient retournés dans
la fertile Sparte, ou qu'ici même devant nos murailles ils se fatiguent de
continuer un siège sans gloire". |
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Mais le
vaillant fils d'Anchise (Enée) le réprimanda; "Polydamas, comment peut-on dire que tu
es sage, quand tu nous proposes de subir dans la ville les longs ennuis d'un
siège ? pendant ce temps, les Achéens ne souffriront point ; ils nous
attaqueront avec plus d'ardeur, en nous voyant moins braves, et nous aurons
l'ennui de nous consumer inutilement dans notre patrie, s'ils nous y
assiègent si longtemps. Une fois enfermés dans la ville, personne ne nous
apportera le blé de Thèbes, le vin de Méonie ; nous périrons misérablement de
faim, à l'abri de nos murs". |
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Il parla
ainsi ; et tous applaudirent ses paroles ; aussitôt, choquant leurs casques,
leurs boucliers et leurs lances, ils se donnaient mutuellement du courage.
Alors les yeux du puissant Zeus regardèrent, du haut de l'Olympe, les Troyens
et les Argiens qui se préparaient au combat ; et il excita leur courage afin
de faire durer plus longtemps leur lutte opiniâtre. |
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La
Discorde (Eris) remplit
de fureur les guerriers, et excita la bataille, sans se montrer ; car un
nuage sanglant entourait ses épaules, et elle s'élançait à grand bruit,
tantôt sur l'armée des Troyens, tantôt sur celle des Achéens ; la Crainte (Deimos) et la Terreur (Phobos) l'accompagnaient,
vénérant en elle la sœur (Enyo - belliqueuse
-fille de Zeus est sœur d'Arès) de leur père (Arès - sur les champs de bataille, Arès était accompagné
d'Enyo, Deimos et Phobos et d'Eris) . La
cruelle déesse, qui, née de peu, grandit tellement, portait des armes
d'acier, souillées de sang corrompu ; elle agitait dans l'air sa lance
homicide, et, sous ses pieds, la terre sombre tremblait ; elle respirait un
vent de feu et elle poussait sans cesse des cris horribles pour exciter les
guerriers. |
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Enée, Eurymène du côté de Troie, Néoptolème, Diomède du
côté des Grecs combattent, mais aussi Teucer renverse l'illustre Zéchis, fils
de Médon, qui habitait la Phrygie, riche en moutons, près d'une caverne
consacrée aux Nymphes à la belle chevelure ; c'est là que jadis, lorsque
Endymion dormait près de ses bœufs, la Lune divine (Séléné) l'aperçut et descendit du ciel près de lui ; car un désir
ardent l'attirait vers le jeune homme, quoiqu'elle fût immortelle. Et
aujourd'hui encore sous les chênes se voit la trace de leurs amours ; en
effet, tout alentour, est répandu le lait des vaches d'Endymion ; les mortels
admirent ce prodige ; de loin on dirait la blancheur du lait ; de près c'est
une eau pure ; plusieurs sources y naissent, et cependant le sol est formé de
rochers. |
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Arès,
Deimos et Phobos, Enyo sur la champ de bataille Gravure |
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Le fils
de Péan (Philoctète) tue
Deionéos et le vaillant Acamas, fils d'Anténor, puis une foule nombreuse de
guerriers. Il s'élançait parmi les ennemis, semblable à l'invincible Arès,
personne ne pouvait, en voyant le fils audacieux de l'illustre Péan, braver
même de loin son approche. Car dans son cœur était une force prodigieuse, et
il était muni des armes magnifiques du redoutable Héraclès. |
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Sur son
baudrier resplendissant étaient des ours féroces et avides, des chacals
affreux, des panthères à la gueule hérissée, puis des loups cruels, des
sangliers aux dents blanches, des lions puissants, et tous ressemblaient
merveilleusement à des animaux vivants. Tout autour étaient des batailles et
des meurtres sanglants. |
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Endymion et Séléné
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Le carquois énorme était orné d'autres dessins : on y
voyait le fils de Zeus, Hermès aux pieds ailés, égorgeant près des eaux
d'Inachos le géant Argos qui dormait, ne fermant que la moitié de ses yeux. A
côté était le téméraire Phaéton qui tombait de son char au-dessus des eaux de
l'Eridan ; de la terre embrasée s'élevait dans les airs une fumée noire, qui
semblait réelle. Ensuite le divin Persée abattait l'horrible Méduse, à
l'endroit où les astres se baignent dans la mer, aux confins de la terre près
des sources de l'Océan, aux lieux où la Nuit se rencontre avec le Soleil
couchant. Plus loin était le fils de l'invincible Japet, étendu sur les
rochers élevés du Caucase et chargé de liens indestructibles ; un aigle
rongeait ses entrailles sans cesse renaissantes et il semblait gémir de
douleur. Telles étaient les armes que les mains célèbres d'Héphaîstos avaient
fabriquées pour le vaillant Héraclès ; celui-ci les avait données au fils de
Péan, son compagnon et son ami. |
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Baudrier,
carquois et flèches d'Héraclès - Mosaïque |
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Fier de
ces dons précieux, le fils de Péan renversait devant lui les bataillons.
Enfin s'élança contre lui Pâris qui, plein de confiance, tenait à la main ses
flèches cruelles et son arc flexible. Il lança un trait rapide qui siffla en
quittant la corde ; il ne fut pas perdu, quoiqu'il n'atteignît pas
Philoctète. le vaillant fils du noble Péan s'élança et tendit son arc en
poussant un grand cri : «Chien, dit-il, je vais te donner la mort et le
tombeau, puisque tu oses lutter avec moi. Ils pourront enfin respirer, ceux
qui pour toi souffrent de cette guerre cruelle ; leurs maux finiront à ta
mort, car c'est toi qui es l'auteur de leurs maux».
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En
parlant ainsi, il ramena la corde jusqu'à sa poitrine ; l'arc formait un
demi-cercle ; et la flèche qu'il portait en dépassait à peine le bord ; puis
la corde résonna quand le trait partit en sifflant ; et le héros frappa
juste. Cependant Pâris ne perdait pas la vie, sa force lui restait ; car la
flèche n'avait pas atteint une partie vitale ; elle avait effleuré légèrement
sa peau. De nouveau donc il tendit son arc, mais le fils de Péan le prévint
et l'atteignit d'un trait aigu au-dessus de l'aine. Pâris aussitôt, laissant
le combat, s'enfuit, comme s'enfuit un chien, quand il a peur d'un lion que
d'abord il avait attaqué ; ainsi Pâris, atteint profondément d'une blessure
douloureuse, s'élançait hors du combat, tandis que les armées se heurtaient
et partout semaient le carnage. |
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Cependant
Pâris poussait de longs gémissements, et son cœur était rempli d'inquiétude à
cause de sa blessure ; les médecins l'entouraient de leurs soins ; enfin les
Troyens rentrèrent dans leur ville, et les Danaens revinrent à leurs
vaisseaux noirs ; car la nuit sombre les avait rappelés du combat pour
délasser leurs membres et répandre sur leurs paupières le sommeil réparateur.
Mais le sommeil ne s'étendit point sur Pâris jusqu'à l'aurore. Personne ne
pouvait le soulager, quoique tous les remèdes lui fussent prodigués ; car le
destin avait décidé qu'il vivrait ou mourrait par les mains d'Oenone et à son
gré. |
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Enfin,
obéissant à l'oracle, il prit à contre-cœur le chemin de la maison conjugale
; la triste nécessité le conduisait en présence de sa femme. Sur son passage
chantaient des oiseaux de mauvais augure, les uns sur sa tête, les autres à
sa gauche. Et lui, il les regardait, tantôt avec crainte, tantôt avec
l'espoir que leur vol n'avait point de sens. Et cependant ils lui annonçaient
une mort douloureuse. Il vint donc en présence de la noble Oenone ; à sa vue
toutes les servantes furent étonnées, et Oenone elle-même. Lui, il se jeta
aussitôt à ses pieds ; il était pâle, et la douleur, pendant la route, avait
pénétré jusqu'au fond de ses entrailles, car le poison mortel de la flèche
avait corrompu le sang dans la poitrine du guerrier ; et son cœur était dévoré
par un cruel tourment. |
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Oenone refusant de
soigner Pâris - Léon Coignet - Fécamp - 1817 |
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Pâris supplie; "Noble femme, tu vois ma souffrance
! ne sois pas irritée, si je t'ai autrefois laissée seule dans cette maison ;
j'ai agi en aveugle ! un destin invincible me poussait vers Hélène. Plût aux
dieux qu'avant de la connaître, j'eusse perdu la vie dans tes bras ! Au nom
des dieux qui habitent le ciel, au nom de notre amour et de notre union, aie
compassion de moi, chasse un ressentiment cruel, applique à ma blessure qui
est mortelle le remède salutaire que les destins ont désigné pour me guérir ;
tu le peux si tu le veux ; il dépend de toi de me sauver d'une mort
douloureuse, ou non". |
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Mais Oenone lui répond; "Quoi ! tu oses venir
devant moi ! moi, que tu as abandonnée au milieu des larmes, dans cette
maison, pour cette fille de Tyndare, cause de tant de maux ! c'est elle que
tu aimais, car elle est plus belle que ta femme, et l'on prétend qu'elle est
à l'abri de la vieillesse. Va, cours à ses genoux, et ne reste pas ici, à me
faire en pleurant le récit de tes maux. Plût aux dieux que j'eusse la force
d'une bête sauvage, pour déchirer ton corps de mes ongles et boire ton sang,
scélérat qui m'as fait tant de mal par ta folie ! Malheureux ! où est
maintenant ta Cythérée avec sa couronne d'or ? où est Zeus oublieux de son
gendre ? Demande leur secours, fuis de ma demeure, honte et fléau des Dieux
et des hommes ! C'est pour toi, scélérat, que les Immortels eux-mêmes
pleurent, les uns leurs petits-fils, les autres leurs fils, dévorés par la
guerre. Va donc, va loin d'ici, cours dans les bras d'Hélène ! jour et nuit
va gémir et pleurer au pied de son lit, lui montrer ta douleur et attendre
d'elle le remède à tes maux !" |
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Elle le chasse, malgré leur serment de s'épauler coute
que coute jusqu'à la mort et malgré les Destins qui fixaient commune leur
temps de vie. Déjà dans l'Olympe Héra et les Heures voyaient le devenir de
Déiphobe épousant Hélène et celui d'Hélénos trahissant les siens par dépit
amoureux. |
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Pendant ce temps la vie abandonnait Pâris sur l'Ida et
Hélène ne le vit plus revenir. Autour de lui, les Nymphes pleuraient
amèrement ; car elles se souvenaient des choses qu'il leur disait tout
enfant, quand il voyait leur troupe dansante. Avec elles pleuraient les
bergers agiles, affligés jusqu'au fond du cœur, et les montagnes répondaient
à leurs cris. Un berger se rendit au palais de Priam et annonça la triste
nouvelle. |
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Hécube pleurait "son cher fils" et Hélène se
lamentait, "Malheureux Pâris ! cause de mon malheur et du malheur de
Troie, tu es mort tristement et tu me laisses dans un cruel malheur, avec la
crainte de maux plus cruels encore. Plût au ciel que les Harpyes m'eussent
enlevée quand je te suivais, conduite par un destin funeste. Maintenant les
dieux t'ont frappé, et moi aussi, malheureuse ! car tous ici me détestent,
tous se détournent de moi, et je n'ai plus d'asile ; si je m'enfuis au camp des
Danaens, tous me frapperont ; et si je reste, les Troyens et les Troyennes
viendront m'assaillir et me déchirer ; mon cadavre n'aura même pas la
sépulture, mais il deviendra la proie des chiens et des oiseaux rapides. Plût
au ciel que le Destin m'eût ôté la vie avant de voir de tels
maux !" |
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Oenone et Pâris mourant |
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Seule, à l'écart, Oenone, l'âme désolée, fuyant
l'approche des autres femmes, gémissait, étendue à terre au fond de sa
demeure, et pleurait l'amour de son ancien mari. Suivant son destin, à la
nuit, elle sortit de son palais, elle arriva à travers la montagne à
l'endroit où les Nymphes pleuraient autour du cadavre d'Alexandre. Déjà les
flammes impétueuses du bûcher l'entouraient ; car les bergers rassemblés de
tous côtés dans la montagne avaient amassé une grande quantité d'arbres, afin
de rendre les derniers devoirs à leur compagnon et à leur prince ; et ils
pleuraient amèrement alentour. En voyant le cadavre, elle ne pleura pas,
quoique affligée ; mais cachant, sous ses voiles, son visage si beau, elle
s'élança dans le bûcher, et, au milieu des cris de tous les bergers, elle se
brûla près de son époux. |
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Enfin quand le feu dévorant eut consumé ensemble Oenone
et Pâris, et les eut réduits en une même cendre, les bergers éteignirent le
feu dans le vin, enfermèrent leurs ossements dans une urne d'or et leur
élevèrent un tombeau de terre ; au-dessus ils dressèrent deux colonnes,
tournées aux côtés opposés de l'horizon. |
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