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Guerre
de Troie - Suite de l'Iliade - Achille |
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Pyliens (habitants de Pylos patrie de Nestor) transportèrent le corps sanglants d'Antiloque et lui
érigèrent un tombeau sur les rives de l'Hellespont. Les Grecs partagèrent la
douleur qui affligeait le roi Nestor; mais ce vieillard montra une fermeté
d'âme digne de sa haute sagesse. Le vrai héros sait tout souffrir, et les
plus affreux revers n'abattent point son courage. |
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Achille blessé |
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Cependant
le terrible fils de Pélée (Achille) se préparait à venger sur les troupes ennemies la mort de
son cher Antiloque. Quelque redoutable que sa fureur dût paraître aux
Troyens, ils sortirent de leurs remparts et marchèrent contre lui : des
divinités cruelles les portaient à tout oser. |
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On en
vient aux mains. Les deux nations ennemies combattent avec une rage égale. Le
fils de Pelée, à la tête des siens, massacre un nombre infini de soldats. Sur
ses pas le sang ruisselle de tous côtés. Le rivage regorge de corps étendus
sans vie. Le Xante et le Simoïs gémissent de voir rougir leurs ondes. Le
héros implacable poursuit jusqu'à leurs remparts les Troyens épouvantés. |
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Apollon
irrité de la mort de tant de braves guerriers et craignant la prise des
portes, descendit promptement de l'Olympe. Armé de ses traits victorieux, il
se place au devant d'Achille; il offre à ses regards, tout l'appareil de la
fureur. Son arc et son carquois résonnent au loin; le feu étincelle dans ses
yeux, la terre tremble sous ses pieds. « Arrête, dit-il d'une voix de
tonnerre, arrête, fils de Pélée, abandonne la poursuite des Troyens, si tu ne
veux encourir l'indignation des immortels ». |
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Achille
réplique et retourne au combat. Apollon courroucé, s'enveloppant d'un nuage
pour se dérober à la vue du héros ; le perce au pied d'un trait fatal qui lui
fait sentir une douleur profonde, et le renverse par terre. |
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Dans
la légende la plus constante, c'est Pâris qui est l'instrument d'Apollon. Il
vise l'invulnérable, là où le Dieu lui montre la faiblesse, - voir Thétis
trempant son jeune fils par le pied dans le Styx pour le rendre invincible,
mais l'endroit par où elle le tenait, le talon, il ne reçut pas la protection
de l'eau divine - Puis ayant tiré sa flèche, Apollon guida celle-ci jusqu'au
fatal talon. |
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Mais
bientôt reprenant ses forces, et tournant de tous côtés des yeux égarés par
la fureur, Achille vomit contre le Dieu de Délos, des injures et des
blasphèmes. "Je ne puis
méconnaître Apollon; Thétis m'avait prédit qu'auprès des portes Scéennes je
périrais par une de ses flèches". En achevant ces mots, il arrache avec
violence le trait meurtrier qu'il jette loin de lui |
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Dès
qu'il paraît sur l'Olympe, la reine des Dieux jette sur lui des regards
d'indignation, et l'accable de ces reproches sévères : « Quoi! tu oses
attenter aux jours d'Achille, tu oses détruire le gage précieux d'une union
formée par les immortels, entre Pélée et la Déesse des mers, d'une union que
jadis tu consacras par tes chants, en ce jour où Thétis sortie de ses humides
demeures pour voler entre les bras de son nouvel époux? Au mépris des
serments les plus solennels, tu soutiens les descendants de ce même fils
d'Ilos, dont l'orgueil autrefois te réduisit à garder de vils troupeaux; tu
oublies, pour protéger sa race, et les maux et les injures que tu en as
reçus. Ne crois pas qu'à sa mort doivent finir les malheurs de Troie : il
reste encore un fils digne d'un tel père (Néoptolème); ce fils doit venir de Scyros au secours des Grecs, et sa
valeur sera funeste aux soldats de Priam. |
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Ainsi
parlait la déesse irritée. Apollon confus, n'osant ni répliquer à l'épouse de
Jupiter, ni lever les yeux sur elle, se tînt éloigné des autres Dieux, le
visage baissé vers la terre. |
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Achille
épuisé, finit par se relever, lève sa lance et fond sur les Troyens et tue
encore chefs et guerriers. Puis il sent une subite défaillance ; la vie lui
échappe, et le froid de la mort se répand dans tous ses membres. Il
apostrophe les Troyens terrifiés "Ne pensez pas échapper à ma lance : si
ma vie s'éteint, mes mânes furieux ne seront vengés (Il
pense à son fils Néoptolème) que par
l'effusion de tout votre sang". |
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Les
Troyens demeurent glacés d'effroi. Pâris essaya de ranimer le courage des
siens. Au comble de ses vœux, il se flattait que les Argiens privés de leur
principal appui allaient quitter le combat : "Amis, suivez-moi, dit-il,
mourons de la main des Grecs, ou enlevons le corps du fils de
Pélée". |
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Achille blessé
par Pâris - Rubens - Londres Courtauld - 1635 |
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A ces
mots, Glaucus, Énée, l'impétueux Agénor et plusieurs autres chefs entourent
le corps de ce puissant Eacide, dont la présence les avait, peu d'heures
auparavant glacés d'épouvante; ils veulent l'entraîner vers les portes de
Priam ; mais l'incomparable Ajax leur opposant toute sa bravoure, écarte avec
sa lance tous ceux qui osent approcher. |
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Achille blessé
par Pâris - Gavin Hamilton - Rome Braschi - 1785 |
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Glaucus
intrépide menace Ajax, Enée approche mais blessé se retire près des murs de
Troie. De leur côté, Teucer et Ulysse inflige le deuil à plus d'une Troyenne.
Ce dernier blessé au genou, n'en poursuit pas moins le combat. |
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Ajax
est menacé par une flèche de Pâris, il lui jette une pierre qui le frappe
durement à la tête. Les Troyens l'enlèvent promptement au désespoir d'Ajax.
De leur côté les principaux chefs de l'armée grecques enlevèrent le corps
d4achille et le déposèrent sous une tente auprès des vaisseaux. Là, tous les
Achéens rassemblés gémissaient en voyant le héros sans vie, couché sur ces
mêmes rives où peu de jours auparavant il avait signalé sa valeur. |
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Ajax
dans l’affliction la plus vive, serrant entre ses bras la dépouille mortelle
d'un héros qui lui fut uni par les liens du sang et les nœuds de l'amitié,
déplorait amèrement son sort, et reprochait au ciel jaloux, de ne l'avoir
frappé que parce qu'il était invulnérable aux traits lancés de la main des
hommes. |
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A ses
côtés, Phénix regardant le héros étendu disait "Je vois encore le moment
délicieux où Pelée me confia le soin de ta première enfance. Je te reçus,
dépôt chéri, je te pris de ses mains, je te serrai sur ma poitrine, je promis
de t'élever comme mon propre fils." |
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Agamemnon
s'écriait " Tu n'es donc plus, ô brave fils de Pelée, s'écriait-il,
héros qui n'eus jamais d'égal, tu n'es plus ! Privée de ton secours, l'armée
des Achéens que je commande, est à demi vaincue." |
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Mais
Nestor rappela qu'il était temps de procéder à sa sépulture. On lava le corps
et on le revêtit d'habits précieux. Puis on l'exposa sous une tente ornée
avec magnificence. Alors s'approchèrent de sa tente, les jeunes captives
qu'il avait prises à Lemnos, et celles qu'il avait emmenées de Thèbes en
Cilicie, lorsqu'il fit la conquête de cette ville sur le roi Etion: toutes se
déchirant le visage, et se frappant la poitrine, prononçaient avec de vifs
transports le nom du prince qui les avait honorées de ses bienfaits |
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Briséis,
défaillante, éperdue, déchirait de ses mains, son corps délicat : le sang
jaillissait de son sein meurtri ; mais son affliction même prêtait un nouvel
éclat à ses charmes. Prosternée aux pieds de celui qui avait été l'unique
objet de sa tendresse, elle dit d'une voix étouffée par ses sanglots : « O
jour fatal à une épouse infortunée ! jour mille fois plus déplorable que
celui qui me priva de mes frères et de ma patrie, jour où je te perds, époux
chéri! toi, dont le regard m'était plus doux que la lumière même du soleil ;
toi, qui faisais mon bonheur et les délices de ma vie! |
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Achille,
grand par ta naissance, grand par tes richesses et par ton mérite, je
possédais tout en possédant ton cœur ; tu avais rompu les liens de mon
esclavage, pour m'unir à toi par des nœuds indissolubles. Hélas ! je ne te
verrai plus! mon malheur est sans ressource. Un autre que toi m'emmènera à
Sparte, ou dans la stérile Argos |
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Dès
que les filles de la mer (les Néréides secours de
Thétis) furent sorties de leur humide séjour,
les Muses descendues de l'Hélicon, vinrent augmenter la pompe funèbre de
l'illustre fils de la première des Néréides. Jupiter communiqua aux yeux de
tous les Grecs la force de soutenir l'éclat et la présence de tant de beautés
immortelles. Bientôt retentirent sur le rivage les accents réitérés des
déesses affligées. La terre autour du corps d'Achille, parut trempée de leurs
larmes. |
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Achille
mort rapporté par Ulysse
James Pradier - MAH Genève |
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Enfin
Thétis se pencha sur le corps de son fils, et couvrit sa bouche de baisers,
les yeux baignés de pleurs, et le cœur navré de tristesse, |
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"Ce
fût Zeus qui jadis me donna pour époux un mortel que peu d'années ont déjà
conduits au dernier période de la vie. Je dédaignai d'abord cette alliance
indigne de moi : pour l'éviter, j'empruntai la forme de tous les êtres que la
terre et le ciel peuvent contenir : j'étais un souffle invisible, une eau
limpide, un oiseau léger, une flamme voltigeante. Cependant l'arbitre de
l'Olympe m'assurant que le fruit de cet hymen serait un héros fameux, je ne
balançai plus de partager ma couche avec Pelée. Achille, que je mis au monde,
fut en effet le plus grand et le plus courageux des hommes; mais pourquoi
m'est-il enlevé à la fleur de son âge ?" |
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Calliope
cherchant à la consoler, lui tint ce discours "Pourquoi pleurer un fils
dont la mémoire vivra éternellement parmi les hommes. Oui, nos chants les
plus harmonieux, célébreront sa gloire, et des hymnes inspirés par nous,
immortaliseront sa bravoure." |
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Bientôt
l'aurore se hâta de reparaître. Des soldats vont couper, dans les forêts, des
arbres, qu'on transporte en hâte sur le rivage. On dresse le bûcher, on y
place le corps qu'on charge des dépouilles de plusieurs guerriers tués dans
le combat. Les captifs Troyens sont ensuite égorgés pour être la proie des
flammes. On immole les porcs et les agneaux les mieux nourris. |
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Des
femmes tirent des coffres les habits les plus précieux du fils de Thétis et
les jettent sur le bûcher. Ni l'or, ni l'ambre ne sont épargnés. Les
Myrmidons coupent leurs cheveux et en couvrent le 'corps de leur roi. La
belle Briséis fait des siens un dernier présent à son époux. On répand aussi
des urnes pleines d'une huile odoriférante et d'autres vases remplis de miel
ou d'un vin non moins délicieux que le nectar. |
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Ce
jour même et la nuit suivante, les vents continuant de déployer leur fureur,
tout n'était que flamme; les bois pénétrés pétillaient de toutes parts, et ne
laissèrent bientôt qu'un amas de cendres. Dés que les deux ministres d'Éole (les vents) eurent
exécutés les ordres de leur roi, ils s'enfuirent avec les nuages qu'ils
avaient accumulés et rentrèrent dans leurs cavernes. |
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On
recueillit les cendres de l'Eacide (Achille) dans une urne d'argent et d'or d'une prodigieuse capacité
: les filles de Nérée les parfumèrent d'huile et d'Ambroisie, et les
recouvrirent de graisses de bœuf mêlées avec le miel. Alors la mère d'Achille
montre le vase d'or qu'elle avait autrefois reçu du dieu Bacchus : c'était un
des ouvrages les plus accomplis qui fussent sortis des mains de Vulcain. On y
déposa l'urne qui renfermait les cendres du fils de Thétis, et on éleva sur
le tombeau, à l'extrémité des rives de l'Hellespont, un monument dont la
durée devait s'étendre à tous les siècles. |
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Différents
auteurs décriront la tombe d'Achille, Alexandre le grand lui-même - grand
admirateur du héros - la visita dès son entrée sur le territoire Perse.
Schliemann aussi - le découvreur de Troie et de Mycènes - s'aida de ces
descriptions - pour localiser la citadelle Pergame (l'acropole de Troie). |
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Hadès
consola les Néréides en les informant qu'Achille, comme Hercule, habiterai le
séjour de la lumière. Et chacun; Hommes et Dieux,
rentra dans sa demeure, consolé de cette promesse. |
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Quintus
de Smyrne désigne le séjour d'Achille dans une île de l'Hellespont, mais plus
communément, la légende mentionne les Champs Elysées - le paradis des Grecs -
où on le mariera plus tard à Hélène. Reste que dans l'Odyssée, Achille semble
s'ennuyer au plus profond de son être, lorsqu'Ulysse communiquera avec son
âme. Pour Hercule, la légende commune est qu'il fut reçu sur l'Olympe,
divinisé et marié à Hébé, déesse de l'éternelle jeunesse. |
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Alexandre
de rendant au Tombeau d'Achille
Hubert Robert - 1757 |
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